एक ग़ज़ल....
अनमोल यादें...
कहां खो गई अब वो पीपल की छांव
बहुत दूर निकल गई कागज़ की नांव
गायब हो गई अब वो कौवे की कांव
नहीं रहे आजकल पहले जैसे गांव
अब नहीं रही वो बचपन की मस्ती
लुप्त हो गई जैसे वो ख़ुशहाल बस्ती
बारिस के पानी में जमकर नहाना
मन हुआ वही किया नहीं तो बहाना
सर्दियों में सेंकते थे हम गुनगुनी धूप
जैसे ही जवानी आई बदला स्वरूप
गर्मी की छुट्टियों में नानी की कहानी
बचपन पीछे छूटा हुई बात पुरानी
गुम हो गई वो लड़कपन की बातें
आंगन में खटिया और चांदनी रातें
अलमस्त होकर धूल-मिट्टी में खेलना
प्यारे गुड्डे-गुड़िया और चकोटी बेलना
दादी के साथ में वो बाजार जाना
जमीन पर बैठकर चटनी रोटी खाना
दादा का कर्णप्रिय भजनों का गाना
गा - गाकर स्नेह से मुझे सुलाना
नाना के खेतों में खूब अमरुद खाना
बैर खाने के लिए पेड़ पर चढ़ जाना
अब न ही वो खेत रहे न ही नाना
बहुत याद आता है गुज़रा जमाना
बच्चों के साथ में वो धमा - चौकड़ी
महल से ज्यादा सुकूं देती थी झोपड़ी
भूलना न चाहता मैं बचपन की यादें
दिल में सहेज रखी हैं अनमोल यादें......!!!